आंदोलनकारियों की आवाज को गीतों में बदलते थे गिरदा
‘उत्तराखंड मेरी मातृभूमि, मातृभूमि मेरी पितृभूमि, ओ भूमि तेरी जय-जयकार म्यार हिमाला’। इन पंक्तियों ने दशकों से हर उत्तराखंड वासी के दिल में राज किया है। हम यह भी कह सकते हैं कि पहाड़ के किसी छोटे बच्चे को अगर कोई गीत सुना के उसका मन बहलाना हो तो यह गीत गाया जाता है। ऐसी ही कई और गीतों और कविताओं के लेखन के लिए मशहूर हैं- जनकवि गिरीश तिवारी। गिरदा अपनी पहाड़ी सुर-ताल, धुन एवं गीतों के लिए प्रसिद्ध हैं। उन्होंने उत्तराखंड राज्य आंदोलन, नशा नहीं रोजगार दो, वन बचाओ आंदोलन समेत विभिन्न आंदोलन में अपने जनगीतों से आंदोलनकारियों को प्रोत्साहन दिया और अपने गानों और कविताओं की वजह से खूब चर्चाओं में आए।
बिना किसी सहारे के बढ़े आगे
गिरदा का जीवन कठिनाइयों से भरा रहा। उनका जन्म अल्मोड़ा जिले के हवालबाग के ज्योली गांव में हुआ और कर्मभूमि नैनीताल रही। बाद में उन्होंने लखनऊ में रिक्शा ढोने का भी काम किया। वहीं वो दिन में रोजी रोटी के लिए रिक्शा चलाते और बाकी समय हाथ में हुड़का पकड़ पहाड़ी धुन गुनगुनाते रहते। उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान गिरदा की विशेष भूमिका रही। वो जगह-जगह जाकर अपने लेखन और गायन से लोगों के दिलों में क्रांति की ज्वाला उत्पन्न करते थे।
विभिन्न गीतों के बने रचनाकार
उत्तराखंड राज्य बनने के बाद गिरदा एक पहाड़ी गायक के रूप में मशहूर हुए। ‘मैसन हुं घर कुड़ि हो, भैंसन हूं खाल, गोरु बाछन हूं गोचर को चिड़ा पोथन हूं डाल’.. गीत से गिर्दा ने पशु-पक्षियों के आवास के लिए चिंता व्यक्त की। ‘नदी समंदर लूट रहे हो गंगा-जमुना की छाती पर कंकड़ पत्थर कूट रहो’… गीत से उन्होंने अवैध खनन का विरोध किया। इन गीतों को लिखकर उन्होंने उत्तराखंड में चल रही दुविधाओं को प्रकट करने की कोशिश की।
आज गिरदा की 14वीं पुण्यतिथि है। उनका स्वर्गवास 22 अगस्त 2010 को हुआ। आज भी लोग गिरदा को, उनके गीतों एवं कविताओं को एवं उनके लेखन को आज भी याद किया है। उत्तराखंड राज्य बनने में गिरदा का बड़ा सहयोग रहा और जिसके फलस्वरूप आज भी उनके गीत हर एक दिल-दिमाग में बसे हुए हैं।
